चाणक्य का कहना है कि जीव जब गर्भ में होता है, तभी उसकी आयुकर्मधनविद्या और मृत्यु आदि बातें निश्चित हो जाती हैं अर्थात मनुष्य जन्म के साथ ही निश्चित कर्मों के बन्धनों में बंध जाता है। इस संसार में आने के बाद सज्जनों के संसर्ग के फलस्वरूप व्यक्ति सांसारिक बन्धनों से मुक्त होता है।

कर्त्तव्य के बारे में चाणक्य नीति
अच्छे लोगों का साथ हर तरह के मनुष्य की रक्षा के लिए ही होता है। आचार्य के अनुसार, मनुष्य जब तक जीवित है, तब तक उसे पण कार्य करने चाहिएक्योंकि इसी से उसका कल्याण होता है और जब मनुष्य देह त्याग देता है तो वह कुछ भी नहीं कर सकता। विद्या को चाणक्य हैतरह ने कामधेनु के समान बताया।
जिस कामधेनु सभी पूरी हो जाती , उसी विद्या से इच्छाएं हैंप्रकार से मनुष्य अपनी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण कर सकता है। विद्या को बुद्धिमानों ने गुप्त धन भी कहा है। चाणक्य कहते हैं कि अनेक मूवं पुत्रों की अपेक्षा एक गुणी पुत्र अधिक हितकर होता है।
आचार्य चाणक्य द्वारा कर्तव्य के बारे में अनमोल विचार
उनका कहना है कि मूर्ख पुत्र यदि दीर्घ आयु वाला होता है तो वह आयुभर कष्ट देता रहता है, इससे तो अच्छा है कि वह जन्म के समय ही मर जाए, क्योंकि ऐसे पुत्र की मृत्यु से दुख थोड़ी देर के लिए होगा। उनका कहना है कि इस संसार में दुखी लोगों को अच्छे पुत्र, पतिव्रता स्त्री और सज्जनों से ही शांति प्राप्त होती है।
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सांसारिक नियमों के अनुसार चाणक्य बताते हैं कि राजा एक ही बात को बार-बार नहीं कहते, पण्डित लोग भी (मंत्रों को) बातें बार-बार नहीं दोहराते और कन्या का भी एक ही बार दान किया जाता है। इसलिए इन कों को करते हुए सावधानी बरतनी चाहिए।
व्यक्ति को तपस्या अकेले करनी चाहिए. विद्यार्थी मिलकर पढ़ें तो उन्हें लाभ होता है। इसी प्रकार संगीत, खेती आदि में भी सहायकों की आवश्यकता होती है। युद्ध के लिए तो जितने अधिक सहायक हों उतने ही अच्छे रहते हैं।
चाणक्य कहते हैं कि उसी पत्नी का भरणपोषण करना चाहिए जो पतिपरायणाहो। जिस मनुष्य के घर में कोई संतान नहींवह घर सूना हैजिसके कोई रिश्तेदार और बन्धु-बान्धव नहीं, उसके लिए यह सार ही चुना है। दरिद्र अथवा निर्धन के लिए तो सब कुछ सूना है।
विद्या की प्राप्ति के लिए अभ्यास करना पड़ता है, बिना अभ्यास के विद्या विष के समान होती हैजिस प्रकार अपच के समय ग्रहण किया हआ भोजन विषतुल्य होता है और निर्धन व्यक्ति के लिए सज्जनों की *भा में बैठना मुश्किल होता है, उसी प्रकार बूढ़े व्यक्ति के लिए स्त्री संसर्ग विष के समान होता है.
धर्म उसे कहते हैंजिसमें दया आदि गुण हों। गुरु उसे कहते हैं जो विद्वान हो। पत्नी वह होती है, जो मधुरभाषिणी हो, बन्धुबान्धव वह होते हैं, जो प्रेम करेंपरन्तु यदि इनमें यह बातें न हों अर्थात धर्म दया से हीन हो, गुरु मूर्ख हो, पत्नी क्रोधी स्वभाव की हो और रिश्तेदार बंधु बांधव प्रेमरहित हों, तो उन्हें त्याग देना चाहिए।
अधिक यात्राएं करने से मनुष्य जल्दी बूढ़ा होता है। स्त्रियों की कामतुष्टि न हो तो वे जल्दी बूढ़ी हो जाती हैं और कपड़े यदि अधिक देर तक धूप में पड़े रहें तो जल्दी फट जाते हैं। चाणक्य बताते हैं कि मनुष्य को अपनी उन्नति के लिए चिन्तन करते रहना चाहिए कि समय किस प्रकार का चल रहा है? मित्र कौन हैं। और कितने हैं? कितनी शक्ति है? बारबार किया गया ऐसा चिंतन मनुष्य को उन्नति के मार्ग पर ले जाता है।
अन्त में आचार्य चाणक्य कहते हैं
आचार्य चाणक्य द्वारा कर्तव्य के बारे में अनमोल विचार: ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य आदि का देवता अग्नि अर्थात अग्निहोत्र है। ऋषि-मुनियों का देवता उनके हृदय में रहता है, अल्पबुद्धि लोग मूर्ति को अपना देवता मानते हैं और जो सारे संसार के प्राणियों को एक जैसा मानते हैं उनका देवता सर्वव्यापक और सर्वरूप ईश्वर है।